कर्ता के पांच विशेषण: आद्य, सकृत, स्वराज, करुणेश और कैवल l ये निजकर्ता के पांच विशेषण हैं l आद्य:- आद्य मतलब जो सृष्टि के आदि में स्वयं थे और उनसे पहले कोई नहीं था इसलिए उन्हें आद्य कहा जाता है l खागाकार शून्य भी आद्य है लेकिन वह जड़ है जबकि आद्य कर्ता सजाणजाण वाले सचैतन हैं l सकर्ता:- सूक्ष्मातिसूक्ष्म रचना से लेकर चराचर घाटों को सचेतन करने वाले अंशों तक के कर्ता वे स्वयं ही हैं l उन्होंने संपूर्ण कृत का सृजन स्वयं ही किया है उनके अलावा सृजन करने वाला कोई दूसरा कर्ता नहीं है इसलिए उनको सकर्ता विशेषण लागू होता है l स्वराज:- अनंत ब्रह्मांड के अनंत जीव-जंतुओं से लेकर देवों आदि पर सृजनहार का ही हुकुम चलता है । आदि, अंत और मध्य तथा चर-अचर पर दूसरा कोई हुकुमी नहीं है ।स्वराज कहें तो जिसका स्वयं का शासन है उनके ऊपर कोई अन्य हुकुमी नहीं है इसलिए उनको स्वराज कहा जाता है। करुणेश:- जगत में जो देव विभूति वाले हैं वे देव अल्पज्ञ विभूति वाले जीवों पर करुणा करते हैं जैसे सूर्य, चंद्र, इंद्रादिक, पवन, गुण आदि l इन देवों को कैवल कर्ता ने एक-एक करुणा प्रदान की है जबकि कैवलकर्ता अनंत करुणाओं के ईश हैं l इसलिए वे जगत का नियमन करते हैं और अंशों को मोक्ष प्रदान करते हैं जिससे उन्हें करुणेश कहा जाता है । कैवल:- कर्ता ने अपने शुद्ध संकल्प से जो-जो रचना रची है वह बल भरकर रची है लेकिन स्वयं बल से रहित हैं l उनमें किसी भी प्रकार का कोई बल नहीं रहता जैसे कोई स्त्री सूत्र के रेशे में बल भरकर रस्सी का निर्माण करती है लेकिन उसके हाथों में बल नहीं चढ़ता । उसी प्रकार निजकर्ता ने संपूर्ण सृष्टि को बल भरकर रचा है लेकिन वे स्वयं बल से रहित रहते हैं l जैसे कुम्भार चाक को घुमाकर बल भरकर मिट्टी से अनेक बर्तनों का निर्माण करता है लेकिन उसके हाथों में बल नहीं भरता वैसे ही निजकर्ता भी अपने संकल्प रुपी हाथों से संपूर्ण सृष्टि की रचना करते हैं लेकिन स्वयं बल से रहित रहते हैं इसलिए ही उन्हें कैवल कहते हैं l इतने विशेषण कर्ता को लागू होते हैं, इसलिए उन्हें एक अद्वैत निजकर्ता कहते हैं पुरुष-प्रकृति से लेकर अणु मात्र भी कोई नई वस्तु का निर्माण कर सके ऐसा कोई दूसरा कर्ता नहीं है l
ज्ञान संप्रदाय के आद्य स्थापक कुवेरस्वामी संवत् 1829 को माघ शुक्ल द्वितीया के दिन गुजरात राज्य के आनंद जिला में कासोर गांव के वन में प्रकट हुए। वे माता श्री हेतवाई को पूर्व जन्म में दिए वचन के फलस्वरुप बालस्वरूप में मिले थे। उन्होंने 7 वर्ष की उम्र में गुरु परंपरा का मान रखने के लिए श्री कृष्णस्वामी महाराज को गुरु धारण करके कैवलकर्ता के दिए आदेश के अनुसार अंशों के कल्याण के लिए छोटी उम्र में ही प्रभात और मंगल पद आदि की रचना रचकर अंश-अंशी के लक्ष्य का ज्ञान जगत के जीवन को देना प्रारंभ किया l वे जम्मू द्वीप में 105 वर्ष (संवत 1829 से1934) रहे, इस दरमियान उन्होंने सकर्ता सिद्धांत की स्थापना की l जगत में परंपरागत चली आ रही उपासनाओं और सगुन-निर्गुण सिद्धांत की हद बताकर देह की चैतनता के कारण रुप में रहने वाले चैतन अंश तथा सृष्टि की संपूर्ण उत्पत्ति के कारण रुप में रहने वाले अंशी की सच्ची पहचान देते हुए कैवलज्ञान से भरपूर विविध धर्म-ग्रंथो से लेकर आरती, स्तुति, भजन, गोडीपद आदि रचनायें की l सर्जनहार से मिले कुल मुख्तारनामा (संपूर्ण अधिकार पत्र) के आधार से अनंत ब्रह्मांड में कैवलकर्ता के साथ मिलाप कराने वाले वे एकमात्र समर्थ गुरु हैं । अंशों को अखंड कैवल मोक्ष प्राप्त हो इसलिए ही उन्होंने प्रगट और गुप्त अमरमंत्र दिया है, जिससे अंश जन्म-मरण के भव संकट में से सदा के लिए मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं l वे सर्जनहार के परमविशेष पाटवी अंश है और उन्हें बुद्धि और 16 विभूतियों से विभूषित दिव्य देह धारण करवाकर कैवलकर्ता ने जगत में भेजा है l जगत में ईश्वर गिने जाने वाले देवी-देवताओं को कर्ता ने एक-एक करुणा देकर करुणामय बनाया है जबकि सृजनहर ने उनको अनंत करुणाओं का समूह बख़्शीश किया है जिससे उन्हें करुणासागर कहा जाता है l ब्रह्मा के पाँचवे मुख का छेदन करने के बाद गुप्त हुए ज्ञान को दर्शाने वाले पंचम श्वसंवेद वेद की रचना करके जगत को नेति पद से परे रहने वाले परमपद को पाने का सच्चा और न्यायपूर्वक मार्ग दर्शाने वाले कैवलवेत्ता पुरुष दिव्य परमगुरु श्रीमत् करुणासागर ही हैं lकहते हैं।